आज का युग बेशक भौतिक उपलब्धियां एवं ज़्यादा से ज़्यादा कमाने का युग बनकर उभरा है। रोज-रोज नए अविष्कार, नई कंपनियां, नए उद्योग और नए उद्यमी सामने आ रहे हैं। कुछ बिक रहे हैं, कुछ टिक रहे हैं लेकिन इन सब के बीच एक ऐसा बड़ा नाम लंबे समय से बिना बिके भी टिका रहा जिसे देश में ही नहीं दुनिया भर में एक बहुत बड़े उद्योगपति के रूप में जाना जाता था।
सच कहें तो रतन टाटा उद्योगपति कम और उद्यमी ज़्यादा थे। एक ऐसे उद्यमी जो भौतिक उपलब्धियां भी हासिल करते थे और व्यापार के ‘एथिक्स’ यानी नैतिक मूल्य को भी बचा कर रखते थे। रतन जी टाटा सपना बेचते नहीं थे बल्कि सपने देखते थे और वह सपने अपने लिए कम तथा दूसरों के लिए ज्यादा देखते रहे । खुद न अपना परिवार बसाया, न शादी की, नआगे बच्चों का सपना देखा बल्कि उन्होंने देश के औद्योगिक जगत में कैसे नैतिक मूल्यों के साथ देश की अर्थव्यवस्था में योगदान दिया जाए, आम आदमी तक खास आदमियों की चीज़ पहुंचाई जाए और किस तरह अपनी कमाई के साथ-साथ दान की राशि भी लगातार बढ़ाई जाए। इसी पर प्रोजेक्ट पर काम करते रहे।
28 दिसंबर 1937 को जन्मे रतन टाटा को नवल टाटा ने गोद लिया था यानी वे मूलत: टाटा नहीं थे लेकिन उन्होंने टाटा खानदान एवं औद्योगिक घराने को जिस तरह से आगे बढ़ाया उससे दूर-दूर तक कोई नहीं कह सकता कि रतन ‘टाटा’ नहीं थे। छोटे से पारसी समुदाय से जुड़े हुए रतन टाटा अपने समुदाय के साथ-साथ दूसरे समुदायों के लिए भी लगातार कार्यशील रहने वाले शख्स थे। वें केवल छोटे-छोटे समुदायों के लिए नहीं अपितु छोटे से छोटे आदमी के बारे में सोचते हुए देश के बारे में बहुत बड़ा सोचते थे।
जब ताजमहल कई मेंटेनेंस की बारी आई और यह जिम्मा उन्हें दिया गया तो उन्होंने एक कंपनी की महज इसलिए कोटेशन नहीं स्वीकार की क्योंकि उस कंपनी का देश से कोई खास सरोकार नहीं था। जब उन्होंने देखा कि समाज में चार पहियों के वाहन पर चलने वाले व्यक्ति खास इज्जत पा रहे हैं जबकि गरीब और निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए चौपाहिया वाहन खरीदना आसान नहीं था तो उन्होंने नैनो को को महज एक लाख रुपए में मार्केट में उतारने का निश्चय किया। शुरू में सबको लगा कि यह एक अव्यवहारिक सपना है और ऐसा संभव नहीं है लेकिन रतन टाटा कहते थे कि मैं सही फैसला नहीं लेता लेकिन जो फैसला लेता हूं उसे जान से सही सिद्ध करने का पूरा प्रयास करता हूं और यह उनका प्रयास ही था कि नैनो जैसी गाड़ी बाजार में आई और उस वर्ग में भी गाड़ी का आनंद लिया जो उसके बारे में सोच भी नहीं सकता था। अब यह अब यह अलग बात है कि यह गाड़ी कई कारणों से अधिक मार्केट नहीं पकड़ सकी और इसे टाटा ग्रुप को वापस लेना पड़ा, लेकिन जाने से पहले रतन टाटा नैनो को इलेक्ट्रिक गाड़ी के रूप में फिर से लाना चाहते थे उम्मीद है टाटा ग्रुप उनका यह सपना जरूर पूरा करेगा।
रतनजी टाटा अलग तरह से सोचने वाले उद्योगपति थे यह उनका ही ‘विजन’ था कि टाटा ग्रुप नमक से लेकर लैंड रोवर और मर्सिडीज़ तक के क्षेत्र में सफल रहा । टाटा ग्रुप के सभी उत्पाद यदि आज भी गुणवत्ता के लिए जाने जाते हैं तो उसके पीछे पद्म विभूषण रतन टाटा द्वारा स्थापित किए गए मूल्यों का बड़ा भारी हाथ है और यदि एक उद्यमी और उद्यम दोनों के लिए जब नैतिक मूल्य बने रहते हैं तब उसे नाम, काम और दाम तीनों मिलते हैं। रतन टाटा ने अपने जीवन में यह सब कमाए। यदि एक उद्योगपति के रूप में उनकी मृत्यु पर देश का बहुत बड़ा वर्ग आज अपूर्णीय क्षति महसूस कर रहा है तो यह रतन टाटा की ‘देशरत्न’ होने का बड़ा सबूत है। अब उन्हें ‘भारत रत्न’ मिले या न मिले इसके ज़्यादा मायने नहीं है लेकिन उद्योग रत्न के रूप में रतन टाटा भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने वाले शख्स के रूप में जरूर जान जाएंगे।
ऐसा नहीं कि रतन टाटा केवल पैसे कमाने या नाम कमाने के पीछे ही लग रहे। वें भी एक सामान्य व्यक्ति की तरह जि़ंदगी जीने वाले आदमी थे। उनके भी जीवन में संवेदनाएं, प्रेम, दर्द, भाव, अभाव सब कुछ रहे, लेकिन उन्होंने इन सबको एक तरफ रखकर अपना सर्वस्व अपने उद्यम को आगे से आगे ले जाने में लगा दिया जिसका लाभ केवल टाटा ग्रुप को नहीं हुआ अपितु देश को भी हुआ और उनसे प्रतिस्पर्धा रखने वाले उन उद्योगों को भी हुआ जो टाटा ग्रुप से प्रेरणा लेकर कुछ नया और सार्थक करने में यकीन रखते थे। एक समय था जब देश में केवल दो ही बड़े औद्योगिक घराने थे एक बिड़ला और दूसरा टाटा। आज देश भर में यदि सैकड़ो नहीं हजारों बड़े औद्योगिक घराने हैं तो उनके पीछे रतन टाटा और दूसरे समूहों के ऐसे ही आदर्शवादी लोगों का होना भी बहुत बड़ा कारण है।
रतन टाटा कभी पद, पैसे और प्रतिष्ठा के पीछे नहीं भागे 3800 करोड़ की संपत्ति के मालिक होने के बावजूद भी उनके जीवन में सादगी थी। वे चुपचाप मदद करने में यकीन रखने वाले व्यक्ति थे। टाटा ग्रुप में ही जब उन्हें लगा कि उनकी आयु अब उन्हें अधिक परिश्रम करने की इजाज़त नहीं देती तो उन्होंने एक क्षण में ही सर्वोच्च पद छोड़कर साइरस मिस्त्री को टाटा ग्रुप को सौंप दिया।
उनका केवल एक ही लक्ष्य था कि अपना उत्तराधिकारी ऐसे व्यक्ति को बनाएं जिसके अंदर केवल उद्यमी नहीं अपितु एक संवेदनशील व्यक्ति हो और इसी संवेदनशीलता के चलते हुए अपने अकेले होने का दर्द भी टाटा अपने साथ लेकर गए, जिससे उन्होंने प्रेम किया उससे विवाह नहीं कर सके और जब उन्हें मन का मीत नहीं मिला तो उन्होंने आजीवन शादी न करने का ऐसा प्रण लिया जो अंतिम दम तक निभाया।
जो आया, वह जाएगा ही। कोई लंबा जीवन जी कर जाता है और कोई लंबी लकीर खींच कर । जाता हर कोई है । कोई धन कमा कर जाता है और कोई यश और दुआएं। बस यहीं से आदमी आदमी का और जिंदगी जिंदगी का फर्क पता चलता है।
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