शुक्रवार का दिन हिंदू हृदय सम्राट बालासाहेब ठाकरे के परिवार और उनके वंशजीय उत्तराधिकारियों के लिए बिल्कुल भी अच्छा नहीं रहा। पहले सुप्रीम कोर्ट ने उद्धव ठाकरे गुट की उस अपील को नकार दिया जिसमें डिप्टी स्पीकर द्वारा हड़बड़ी में मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे गुट के 16 विधायकों की सदस्यता को समाप्त करने के मामले को सात सदस्यीय पीठ को सौंपने की मांग की गई थी। शाम को उद्धव ठाकरे गुट को अब तक का सबसे बड़ा झटका तब लगा जब निर्वाचन आयोग ने शिंदे गुट को असली शिवसेना मानते हुए पार्टी का चुनाव चिह्न धनुष-बाण देने का एलान कर दिया। जो लोग शिवसेना नाम और पार्टी का चुनाव चिह्न धनुष-बाण मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना को देने के निर्वाचन आयोग के फैसले पर हैरान हो रहे हैं, उन्हें शिवसेना के इतिहास पर नजर डालनी चाहिए।
शिवसेना की कार्यशैली राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरह रही है और यह सर्वविदित है कि आरएसएस गैर-राजनीतिक संगठन है। शिवसेना की स्थापना बाल ठाकरे ने भले ही 19 जून 1966 को कर दिया था, लेकिन निर्वाचन आयोग की नजर में शिवसेना संवैधानिक रूप से राजनीतिक पार्टी नहीं थी। यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि शिवसेना न तो कभी लोकतांत्रिक पार्टी रही और न ही उसका संविधान लोकतांत्रिक रहा।
निर्वाचन आयोग ने सबसे पहले 1985 के बीएमसी चुनाव में शिवसेना को धनुष बाण चुनाव चिन्ह आवंटित किया था। उससे पहले चुनाव लड़ने वाले शिवसेना कार्यकर्ता को निर्वाचन आयोग निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में देखता था। बहरहाल शिवसेना संवैधानिक रूप से 14 अक्टूबर 1989 को राजनीतिक पार्टी तब बनी जब निर्वाचन आयोग ने उसे राजनीतिक पार्टी के तौर पर मंजूरी दी थी। शिवसेना के गठन के बाद से ही बाल ठाकरे का आदेश ही पार्टी का संविधान हुआ करता था। शिवसेना में बाल ठाकरे का कद इतना विशालकाय हो गया था कि शिवसेना लोकतांत्रिक पार्टी रह ही नहीं सकी।
आरंभ में तो पार्टी को कोई संविधान नहीं था, लेकिन 1999 में निर्वाचन आयोग से सख्त रवैये के बाद देश के सभी राजनीतिक दलों को पार्टी का संविधान बनाना पड़ा और कांग्रेस समेत देश के सभी राजनीतिक दलों को संगठन का चुनाव कराना पड़ा। सोनिया गांधी भी जितेंद्र प्रसाद को हराकर कांग्रेस अध्यक्ष बनीं। तब निर्वाचन आयोग के निर्देश पर आनन-फानन में शिवसेना का भी संविधान बनाया गया। कहा जाता है कि बाद में उस संविधान को फिर से पूर्ववत कर दिया गया। इसीलिए निर्वाचन आयोग ने उस संविधान को अलोकतांत्रिक कहा और उसी का हवाला देकर शिवसेना नाम और चुनाव चिन्ह निर्वाचित जनप्रतिनिधियों वाली एकनाथ शिंदे की शिवसेना को देने का फैसला किया।
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